Author:कबीरदास
संतो जागत नींद न कीजै।।
काल न खाय कलप नहिं व्यापै। देह जुरा नहिं छीजै।।
उलटी गंग समुद्रहिं सोखै। ससि अउ सूरहिं ग्रासै।।
नव ग्रह मारि रोगिया बैठे। जल में बिंबु प्रगासै।।
बिनु चरनन को दहुँ दिसि धावै। बिनु लोचन जग सूझै ।।
ससा उलटि सिंह को ग्रासै। ई अचरज कोई बूझै ।।
अउंधे घडा नहीं जल बूड़े। सूधे सो जल भरिया।।
जेहि कारण नर भिन्न&भिन्न करै। सो गुरु परसावे तरिया।।
बैठि गुफा में सभजग देखै। बाहर किछउ न सूझै ।।
उलटा बान पारधिहीं लागै। सूरा होय सो बूझै ।।
गायन कहैं कबहुं नहिं गावै। अनबोला नित गावै।।
नटवट बाजा पेखनि पेखै। अनहद हेत बढ़ावै।।
कथनी बदनी निजुकै जीवै। ई सम अकथ कहानी।
धरती उलटि अकासहिं बघे। ई पुर्खन की बानी।।
बिना पिआला अमृत अंचवै।नदी नीर भरि राखै।
कहैं कबीर सो जुग&जुग जीवै। जो राम सुधा रस चाखै।।
संतो जागत नींद न कीजै।।
काल न खाय कलप नहिं व्यापै। देह जुरा नहिं छीजै।।
उलटी गंग समुद्रहिं सोखै। ससि अउ सूरहिं ग्रासै।।
नव ग्रह मारि रोगिया बैठे। जल में बिंबु प्रगासै।।
बिनु चरनन को दहुँ दिसि धावै। बिनु लोचन जग सूझै ।।
ससा उलटि सिंह को ग्रासै। ई अचरज कोई बूझै ।।
अउंधे घडा नहीं जल बूड़े। सूधे सो जल भरिया।।
जेहि कारण नर भिन्न&भिन्न करै। सो गुरु परसावे तरिया।।
बैठि गुफा में सभजग देखै। बाहर किछउ न सूझै ।।
उलटा बान पारधिहीं लागै। सूरा होय सो बूझै ।।
गायन कहैं कबहुं नहिं गावै। अनबोला नित गावै।।
नटवट बाजा पेखनि पेखै। अनहद हेत बढ़ावै।।
कथनी बदनी निजुकै जीवै। ई सम अकथ कहानी।
धरती उलटि अकासहिं बघे। ई पुर्खन की बानी।।
बिना पिआला अमृत अंचवै।नदी नीर भरि राखै।
कहैं कबीर सो जुग&जुग जीवै। जो राम सुधा रस चाखै।।
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